Tuesday, December 6, 2011

वो सनकी

वो सनकी ख्वाबों के बोझ  तले दब जाता है
अपने मरे शरीर के आगे घी के दिए जलाता है
गा कर , हंस कर अपना मातम मनाता है
आंसू भरे भगोने से गंगा जल पिलाता है
अपेक्षाओं की मार से लहू लुहान  देह को
समाज से मिली उलाहनाओं का कफ़न ओढाता है
"राम नाम झूठ है.."  इसके नारे लगता है
अकेला ही खुद को शमशान पहुंचता है
वो सनकी अपनी मौत का जश्न मनाता है
अपनी चिता को वो खुद ही आग लगता है!



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