लकीरों से घिरी ज़िन्दगी
नक्शों में बंधे सपने
संग हैं पर संग नहीं
न हम उनके, न वो अपने
न हम उनके, न वो अपने
ये सरहदें किसने बुनीं
क्यूँ कर दिया हमको जुदा
क्या यही थी तेरी मर्ज़ी
ए ख़ुदा, दे मुझको बता!
क्या पश्चिम क्या पूरब
वही पानी वही सूरज
वही मिटटी वही खुशबू
पायी मैंने जो की जुस्तजू
ये नाराज़गी क्यूँकर हुई
ये फ़ासले कैसे हुए
सोचो ज़रा, पूछो ज़रा
कैसे बनें सब अजनबी?
ये सरहदें किसने बुनीं...
तोड़ दो ये सरहदें
भूल जाओ ये क़ायदे
मिटा दो ये लकीरें
खोल दो ये ज़ंजीरें
आओ एक नक्शा ख़ुद बुनें
उसमें मुहब्बत के रंग भरें
आओ सब साथ मिल
आशा-अमन के फूल चुनें
न रहें अब सरहदें
न रहे ये क़ायदे