Saturday, January 28, 2012

बतकही

जीवन के इस रंग मंच में
बहरूपिये हैं सभी..
तुम-मैं-वो भी
पहले तो बस था सियार रंगा
आज आदमी भी है
प्रबुद्ध, ज्ञानी
आधुनिकता की आड़ में नंगा
कोई समाज बदलने की बात करता है
फिर रात में खुदगर्ज़ी का बिस्तर गरम करता है
किसी को औरों से आगे बढ़ना है
"उदासीन जीवन है, कुछ अलग करना है!"
अलग तो किया
पर प्रेम को, स्नेह को
प्राण को और दान को
चूहों की दौड़ जीत जाने को
चकाचौंध प्रतिष्ठा पाने को
वो देखो, उसने भगवा ओढा है
"बाप रे! संत है..
जानता आदि और अनंत है!"
लम्बी जटाएं, माथे पे तिलक थोडा है..
इश्वर कौन है इसकी जांच करता है
आस्था के सर पे चढ़कर बांच करता है
आशीर्वाद देता है, "खुश रहो"
फिर माया संग छुप के नंगा नाच करता है
इसको देखा?
ये फक्कड़ कहता है है खुद को
हंसती है दुनिया इसपे, 
लोग पागलपन कहते हैं इसकी ज़िद को
"जीवन मुझको जीती है
मैं जीवन को नहीं..
तुम्हारी जागीर है ये प्रश्न.
क्या गलत है, क्या सही?
मुझको झकझोरने का फायदा नहीं 
बस मिटटी, धूल, स्वेद पाओगे
जिसमें बना, उसमें सना..
जीने का मेरा कोई कायदा नहीं "




contd....